भारतीय महिलाओं का आकर्षण है आभूषण और यहां हर प्रांत और स्थान के अनुसार आभूषण भी बदल जाते हैं। मैं यहां पर उत्तराखंड की बात करूंगा जहां हर अंग के लिये कुछ खास आभूषण होते हैं। भारत के हर प्रांत की तरह उत्तराखंड में भी सोने और चांदी के ही आभूषण प्रचलित हैं। प्राचीन समय से चले आ रहे कई आभूषण अब कम प्रचलन में हैं तो कुछ जेवर ऐसे भी हैं जो फिर से पहाड़ी महिलाओं में अपनी जगह बना रहे हैं।
उत्तराखंड के आभूषणों पर चर्चा करने से पहले एक सवाल मन में उठा कि महिलाएं ही अधिक आभूषण क्यों पहनती हैं? इस बारे में कुमांऊ क्षेत्र के विद्वान डॉ. शेर सिंह पांगती ने अपनी किताब 'वास्तुकला के विविध आयाम' में लिखा है, ''आभूषणों का प्रारंभिक उपयोग मूल्यवान वस्तुओं जैसे सोना-चांदी के विभिन्न प्रकार के रत्नों को पारिवारिक आय की जमा पूंजी के रूप में सुरक्षित रखने के लिए शरीर में धारण करने से हुआ, ताकि इनके खो जाने अथवा चोरी हो जाने की संभावना न रहे। पहले घरों को सुरक्षित रखने के लिए ताले उपलब्ध नहीं थे और न बैंक व लॉकर की व्यवस्था थी। ऐसे में आभूषणों को शरीर पर धारण करके ही सुरक्षित रख पाना संभव था। परिवार की स्त्रियां घर से बाहर कम निकलती थी, इसलिए उनको उसका जिम्मा सौंपा गया। धीरे-धीरे अपनी संपत्ति व वैभव को समाज के समक्ष प्रदर्शन करने की परंपरा के चलते मूल्यवान धातुओं को सुंदर रूप देकर आभूषण के रूप में धारण करने का चलन हुआ।''
उत्तराखंड में भी अधिकतर आभूषण महिलाओं से ही जुड़े हैं। उत्तराखंड के पुरूषों में एक समय कुंडल पहनने का प्रचलन था जिन्हें मुरकी या बुजनि कहा जाता है। अब भी कई क्षेत्रों में पुरूषों को मुरकी पहने हुए देखा जा सकता है। 'घसेरी' में यहां पर मुख्य रूप से महिलाओं से जुड़े आभूषणों का जिक्र किया गया है।
सिर पर पहने जाने वाले आभूषण
शीशफूल : शीशफूल को महिलाएं जूड़े में पहनती हैं।
मांगटीका : मांगटीका अपने नाम के अनुसार मांग में पहना जाता है। इसे अमूमन किसी त्योहार, देवकार्य, शादी या फिर किसी अन्य शुभकार्य के अवसर पर पहना जाता है। इस तरह का एक अन्य जेवर होता है जिसे वाड़ी कहते हैं।
नाक में पहने जाने वाले आभूषण
नथ या नथुली : उत्तराखंड की महिलाओं को विशिष्ट पहचान दिलाती है नाक में पहने जाने वाली कुंदन जड़ी बड़ी नथ। इसके बिना उनका श्रृंगार अधूरा माना जाता है। इसे विशेष तरह की कारीगरी से तैयार किया जाता है। गढ़वाल में टिहरी नथ और छोटी नथ का प्रचलन है। इसे विवाहित महिलाएं पहनती हैं।
बुलाक : उत्तराखंड विशेषकर गढ़वाल की महिलाएं नाक के बीच एक गहना पहनती हैं जिसे बुलाक कहते हैं। इसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार छोटा या लंबा बनवाया जाता है। कुछ बुलाक इतनी लंबी होती हैं कि वह ठुड्डी से भी नीचे तक पहुंच जाती हैं। इसे बेसर भी कहा जाता है।
फुल्लि : नाक में पहने जाने वाली लौंग। यह असल में नथ का विकल्प है। नथ को हमेशा नहीं पहना जा सकता है इसलिए महिलाएं इसे उतारकर लौंग या फुल्लि पहनती हैं। यह काफी छोटे आकार की होती है और इसलिए इसे किसी भी समय आसानी से पहना जा सकता है।
कानों में पहने जाने वाले आभूषण
मुर्खली : चांदी की बालियां जिन्हें महिलाएं कानों के ऊपरी हिस्से में पहनती हैं।
बाली : सोने के बने कुंडल।
कर्णफूल या झुमकी : झुमकी पहाड़ी महिलाओं का भी पारंपरिक आभूषण है। कर्णफूल भी इसी का एक रूप है। लंबी झूमकी जिसके बीच में नग लगे होते हैं।
गले में पहने जाने वाले आभूषण
गुलबंद या गुलोबंद : गुलुबंद, गुलबंद या गुलोबंद एक आकर्षक जेवर है जिसे सोने की डिजाइनदार टिकियों को पतले गद्देदार पट्टे पर सिलकर तैयार किया जाता है। गुलुबंद गढ़वाली, कुमांउनी, भोटिया और जौनसार की विवाहित महिलाओं का प्रमुख आभूषण रहा है। मंगनी यानि मांगड़ या सगाई के समय पहले गुलबंद पहनाने का ही प्रचलन था। (विस्तार से आगे दिया गया है)
हंसुळी या हांसुळी : चांदी का बना जेवर जो काफी वजनी होता है। इसे प्राचीन समय में अधिक पहना जाता है। महिलाओं के अलावा छोटे बच्चों को भी हंसुळी पहनायी जाती है लेकिन उसका वजन कम होता है। महिलाएं जिस हंसुळी को पहनती हैं उसका वजन तीन तोला तक होता है।
चरेऊ : यह एक तरह से मंगलसूत्र का ही विकल्प है जिसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। सुहागिन महिला अपने गले में काले मनकों की माला पहनती हैं। इन्हीं मालाओं के बीच में सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोना लगाकर मंगलसूत्र तैयार किया जाता है। इसे चरेनु भी कहा जाता है।
तिमाण्यां : सोने के तीन मनकों से बना गले का आभूषण।
गले के अन्य आभूषणों कंठी, तिलहरी, चंद्रहार, हार, लाकेट आदि शामिल हैं।
हाथ में पहने जाने वाले आभूषण
पौंची या पौंजी : इन्हें कलाईयों में पहना जाता है। कंगन के आकार के होते हैं जिनमें सोने या चांदी के दाने लगे होते हैं। इन्हें भी गुलबंद की तरह कपड़े की पट्टी पर जड़कर तैयार किया जाता है।
मुंदड़ी : मुद्रिका या अंगूठी। मुंदरि या गुंठी भी कहा जाता है।
धागुली या धागुले : छोटे बच्चों के हाथों में पहनाये जाने वाले चांदी के कड़े। यह सादे और डिजाइनर दोनों तरह के होते हैं।
इनके अलावा स्यूंण, स्यूंणा या सांगल कंधे पर लगाया जाता है जो कि सेफ्टी पिन की तरह होता है। बाजू पर भी एक आभूषण पहनने का प्रचलन रहा है जिसे गोंखले कहा जाता है।
कमर पर पहने जाने वाले आभूषण
तगड़ी : चांदी से बना आभूषण जिसे बेल्ट की तरह कमर पर पहना जाता है। पुराने जमाने में महिलाएं हमेशा इसे पहनकर रखती थी क्योंकि कहा जाता था कि लगातार काम करते रहने के बावजूद इससे कमरदर्द नहीं होता है। इसे करधनी, कमरबंद भी कहा जाता है। करधनी यानि सोने चाँदी आदि का बना हुआ कमर में पहनने का आभूषण जिसमें कई लड़ियाँ या पूरी पट्टी होती है।
पांवों में पहने जाने वाले आभूषण
झिंगोरी, झांजर, इमर्ति, पौटा, पायल, पाजेब और धागुले : पायल चांदी की बनी होती हैं। उत्तराखंड में क्षेत्र के अनुसार इनका आकार प्रकार और नाम बदल जाते हैं। गढ़वाल में महिलाएं चूड़ीनुमा पायल पहनती हैं जिन्हें धगुला या धागुले कहते हैं। पौटा जैसे गहने अब प्रचलन में नहीं हैं।
बिछुए : पैरों की उंगलियों में पहना जाता है। ये चांदी के बने होते हैं और इन्हें सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
अब बात करते हैं गुलबंद की जिसके बारे में मैंने पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी। इस पर कई तरह की टिप्पणियां मिली। पत्रकार श्रीमती प्रज्ञा बड़थ्वाल ध्यानी ने लिखा, ''यह अब भी फैशन में है। मेरे पास नथ, गुलुबंद, पौंची ओर हंसुली है। तिमांण्या बनवाना है। '' श्री नेगीदा लखोरिया ने गुलबंद के बारे में विस्तार से बताने का अच्छा प्रयास किया। उन्होंने लिखा, ''गुलबन्द से पूर्व क्या आभूषण पहनाया जाता रहा होगा? स्वर्ण गुलबन्द से पूर्व मंगणि के समय मांगी गई कन्या के मस्तक पर भावी स्वसुर द्वारा तिलक करके चांदी का हांसुळ पहनाया जाता था। वही आभूषण मुख्य परम्परागत आभूषण था। समयांतर में मखमली पट्टे पर सात या नौ पट्टिकाओं वाला गलूबन्द हांसलि के स्थान पर पहनाया जाने लगा। यह आभूषण केवल एक आभूषण मात्र था चूंकि इसमे लगा स्वर्ण शरीर से स्पर्श नहीं करता था तो इस आभूषण का लाभकारी प्रभाव भी कुछ नहीं था क्योंकि आभूषणों का निरन्तर त्वचा से स्पर्श करते रहना एक्यूप्रेशर तो करता ही है साथ साथ स्पर्श घर्षण से स्वर्ण या रजत की आवश्ययक मात्रा भी शरीर में पहुंचती रहती है।"
गढ़वाली के वरिष्ठ कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल ने टिप्पणी की, ''पुराने ज़माने में गरीबी अधिक थी तो हरेक मंगनी करने के लिए हँसुली या गुलुबंद का इंतज़ाम नही कर पाता तो किसी रिश्तेदार या गॉव की बहू बेटी का गहना लेजाकर भी मंगनी हो जाती थी। कहते है पूरे गांव के लड़कों की मंगनी एक हँसुली से भी हो जाती थी। आपसी सद्भाव का एक बड़ा उदाहरण।''
- धमेन्द्र पन्त 'घसेरी'
Prathma Traditional & Nature,Haldwani